Qisas al-Anbiya (Urdu Hindi) Part 1
परिचय
Qisas al-Anbiya (Urdu Hindi) Part 1 में अल्लाह के बरगुज़ीदा नबियों के वाक़ियात बयान किए गए हैं, जो ईमान, सब्र और तौबा की बेहतरीन मिसालें पेश करते हैं।
अय्यूब (अलैहिस्सलाम)
- अल्लाह ने उन्हें बेपनाह नेमतें अता कीं।
- कड़ी आज़माइशों (औलाद की मौत, माल-ओ-दौलत का नुक़सान, शदीद बीमारी) में भी सब्र किया।
- सब्र की वजह से अल्लाह ने उनकी सेहत, औलाद और दौलत लौटा दी।
- Qisas al-Anbiya (Urdu Hindi) Part 1 का अहम पैग़ाम: सब्र का फल हमेशा रहमत है।
यूनुस (अलैहिस्सलाम)
- अपनी क़ौम से ग़ुस्से में निकल पड़े, मछली के पेट में पहुंचे।
- अंधेरों में दुआ: “ला इलाहा इल्ला अंता सुब्हानक इन्नी कुंतु मिनज़-ज़ालिमीन”।
- अल्लाह ने उनकी दुआ क़ुबूल की और नजात अता की।
- Qisas al-Anbiya (Urdu Hindi) Part 1 में उनकी क़ौम का तौबा कर लेना बे-मिसाल वाक़िया है।
ज़ुलक़िफ्ल (अलैहिस्सलाम)
- कुरआन में सिर्फ नाम का ज़िक्र, मगर उन्हें सालेह और सब्र करने वालों में शुमार किया गया।
- Qisas al-Anbiya (Urdu Hindi) Part 1 इस बात पर ज़ोर देता है कि नबी के लिए खामोश ज़िक्र भी उनकी नेकी का सबूत है।
शुएब (अलैहिस्सलाम)
- कौमे मदयन को तौहीद और सही मुआशरती उसूलों की तरफ़ बुलाया।
- माप-तौल में कमी और मिलावट से रोका।
- इंकार करने वाली कौम पर अज़ाब-ए-इलाही नाज़िल हुआ।
- Qisas al-Anbiya (Urdu Hindi) Part 1 में उनका किस्सा इंसाफ़ और अमानत की तालीम देता है।
असहाब-उल-क़रया
- तीन नबियों को एक ही बस्ती में भेजा गया।
- उनकी तक़ज़ीब करने वालों को अल्लाह ने अज़ाब से दोचार किया।
- Qisas al-Anbiya (Urdu Hindi) Part 1 यहाँ भी तौहीद और पैग़ाम-ए-हक़ की अहमियत पर ज़ोर देता है।
👉 नतीजा
Qisas al-Anbiya (Urdu Hindi) Part 1 हमें सब्र, तौबा, ईमान और इंसाफ़ का सबक़ देता है। यह किताब साबित करती है कि अल्लाह की रहमत कभी खत्म नहीं होती और हिदायत सिर्फ उसी के पास है। Qisas al-Anbiya (Urdu Hindi) Part 1 को पढ़ना आज भी हमारी ज़िन्दगी के लिए रहनुमाई का ज़रिया है।
Qisas Al-Anbiya (Urdu Hindi) Part 1
بِسْمِ اللَّهِ الرَّحْمَٰنِ الرَّحِيمِ
मोहतरम सामईन, अस्सलाम वालेकुम व रहमतुल्लाह व बरकातहू। किताब-ए-सुन्नत की इशाअत के आलमी इदारे दारुस्सलाम की तरफ़ से आपकी ख़िदमत में “तख़्लीक-ए-कायनात” और “तख़्लीक-ए-आदम (अलैहिस्सलाम)” से लेकर “ईसा (अलैहिस्सलाम)” तक तमाम अंबिया और क़ौमों का तज़किरा “क़िस्सुल अंबिया” पेश किया जा रहा है। अब हम आपको सुनाते हैं सैय्यदना अय्यूब (अलैहिस्सलाम) का क़िस्सा। अय्यूब (अलैहिस्सलाम) अंबिया की जमाअत में से एक हस्ती हैं। अल्लाह तआला ने सब्र के मामले में बतौर-ए-ख़ास इनका तज़किरा फ़र्माया है, लोगों के लिए एक मिसाल और नमूना ठहराया है।
आपका नसबनामा यूँ है: अय्यूब बिन मौस बिन राजह बिन ईस बिन इसहाक बिन इब्राहीम (अलैहिस्सलाम)। यह सैय्यदना इसहाक (अलैहिस्सलाम) की नस्ल में से हैं। इब्राहीम (अलैहिस्सलाम) के दो साहबज़ादे थे—इस्माईल (अलैहिस्सलाम) और इसहाक (अलैहिस्सलाम)। इनके बाद सब के सब अंबिया-ए-कराम इसहाक (अलैहिस्सलाम) की नस्ल से थे, सिवाय नबी-ए करीम صَلَّى اللّٰهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ के; आप अकेले सैय्यदना इस्माईल (अलैहिस्सलाम) की नस्ल से हैं। इसहाक (अलैहिस्सलाम) के बेटे हैं याकूब (अलैहिस्सलाम)। यही याकूब (अलैहिस्सलाम) “इस्राईल” भी कहे जाते हैं, और इसी निस्बत से बनी-इस्राईल का मतलब है—याकूब (अलैहिस्सलाम) की आल-औलाद। याकूब (अलैहिस्सलाम) के 12 बेटे थे; इनके बेटों को “असबात” भी कहते हैं—इनका तज़किरा कुरआन में भी आता है। अब सवाल यह है कि जिन “असबात” का तज़किरा कुरआन-ए-मजीद में अंबिया-ए-कराम (अलैहिस्सलाम) के साथ किया गया है—क्या वो याकूब (अलैहिस्सलाम) के बेटे थे या उन बेटों की औलाद में से? अक्स़र उलेमा-ए-कराम ने इशारा दिया है कि “असबात” लफ़्ज़ से जिन अंबिया-ए-कराम (अलैहिस्सलाम) की तरफ़ इशारा किया गया है, वो याकूब (अलैहिस्सलाम) के सीधे बेटे नहीं थे; क्योंकि उन्होंने तो यूसुफ (अलैहिस्सलाम) के क़त्ल की कोशिश की, अपने वालिद से झूट बोला और दूसरे ग़लत काम किए—तो ऐसी हरकात के करने वाले अंबिया नहीं हो सकते। जबकि “असबात” से मुराद वो अंबिया-ए-कराम होंगे जो इन बेटों की नस्ल से आए होंगे। बनी-इस्राईल के 12 क़बीले थे—और क़बीले को “सिब्त” भी कहते हैं—इसीलिए उन्हें “असबात” कहा जाता है, यानी बनी-इस्राईल इन क़बीलों में तक़सीम हो गए। इसी तरह सैय्यदना अय्यूब (अलैहिस्सलाम) भी सैय्यदना इसहाक (अलैहिस्सलाम) की औलाद में से हुए।
सूरह-ए-अनआम, आयत 84 में अल्लाह फ़र्माते हैं: “व मिन जुऱ्रिय्यतिहि दाऊद व सुलैमान व अय्यूब व यूसुफ व मूसा व हारून”—और उसकी औलाद में से दाऊद, सुलेमान, अय्यूब, यूसुफ, मूसा और हारून—तो ये सब के सब सैय्यदना इब्राहीम (अलैहिस्सलाम) की नस्ल से थे। अय्यूब (अलैहिस्सलाम) भी अल्लाह तआला के नबी और रसूल थे। सूरह-ए-निसा, आयत 163 में अल्लाह तआला फ़र्माते हैं: “इन्ना औहैना इलैका कमा औहैना इला नूहिन् व न्-नबिय्यीना मिन बअ्दिहि, व औहैना इला इब्राहीम व इस्माईल व इस्हाक व याकूब व अल-असबाति व ईसा व अय्यूब व यूनुस व हारून व सुलेमान; व आतैना दाऊद ज़बूरा”—यक़ीनन हमने आपकी तरफ़ उसी तरह वही की है जैसा कि नूह और उनके बाद वाले नबियों की तरफ़ की, और हमने वही की इब्राहीम, इस्माईल, इस्हाक, याकूब और उनकी औलाद पर, और ईसा, अय्यूब, यूनुस, हारून और सुलेमान की तरफ़; और हमने दाऊद को ज़बूर अता फ़र्माई। अल्लाह तआला ने इन सब अंबिया-ए-कराम (अलैहिस्सलाम) की तरफ़ वही फ़र्माई—और अय्यूब (अलैहिस्सलाम) भी इन्हीं रसूलों में से एक हैं। अल्लाह तआला ने आपको आपकी क़ौम “सूरान” की तरफ़ मबऊस फ़र्माया। यह क़ौम मुल्क-ए-शाम में रहाइश-पज़ीर थी।
आप बहुत ज़्यादा मालदार थे—अल्लाह तआला ने आपको बेशुमार नेमतों से नवाज़ा था। आपके पास बेहिसाब मवेशी, लादाद नौकर-चाकर, बहुत-सी ज़र-ज़मीन थी। आप ताजिर भी थे—तिजारत का सिलसिला दूर-दूर तक फैला हुआ था। अल्लाह तआला ने आपको कसीर औलाद भी अता फ़र्माई थी—सात बेटे और सात बेटियाँ। आप ख़ुद भी सेहतमंद और ताक़तवर थे; अस्हाब की तादाद भी काफ़ी थी—ग़ौर करें, अल्लाह तआला ने आपको गुणा-गुणा नेमतों से नवाज़ा था—रू-ए-ज़मीन पर नेमतों से मालामाल शख़्स थे।
अल्लाह तआला ने आपको आज़माना चाहा—ताकि बाद में आने वाले लोगों के लिए आप सब्र की मिसाल बन जाएँ। आख़िर सब्र का मरहला शुरू हो गया: आपका सब माल-ओ-मताअ हलाक हो गया—यहाँ तक कि आप फ़क़ीर हो गए। आपकी ज़िन्दगी ही में आपकी सारी औलाद अल्लाह को प्यारी हो गई। किसी का एक बेटा भी फौत हो जाए तो वो कितना ग़मगीन और मुतास्सिर होता है—सैय्यदना याकूब (अलैहिस्सलाम) पर ग़म किस तरह तारी हुआ कि आपकी आँखों की बिनाई तक जाती रही—मारे ग़म के घुल गए थे, जबकि उनका कोई बेटा फौत नहीं हुआ था। और उधर सात बेटे और सात बेटियाँ फौत हो गईं—यही नहीं, तमाम माल-मवेशी हलाक हो गए। मामला यहाँ भी खत्म नहीं हुआ—आप शदीद मर्ज़ में मुबतला हो गए; बीमारी इस क़दर शदीद थी कि आप चलने-फिरने से माज़ूर हो गए, उठने की सक़त न रही, यहाँ तक कि गोश्त गिरने लगा—आज़माइश इंतिहा को पहुँच गई।
अब आपके साथी भी आपका साथ छोड़ने लगे—उन्हें ख़ौफ़ हुआ कि कहीं उनकी बीमारी इन्हें भी न लग जाए—कहीं यह कोई ऐसी बीमारी न हो जो एक से दूसरे को लगती हो। इस तरह सिवाय दो के सब साथी आपका साथ छोड़ गए—कोई क़रीब न आता था—जो दो साथी रहे, वे भी ज़रा दूर खड़े होकर बात करते थे। आपकी ख़िदमत के लिए बस आपकी बीवी रह गई—वो बहुत वफ़ादार थीं—ख़िदमत करतीं, खिलाती-पिलातीं, नहलातीं। फिर नौबत यहाँ तक पहुँची कि सारा माल बिल्कुल ख़त्म—अब बीवी साहिबा ने उजरत पर लोगों के घरों में काम करना शुरू किया ताकि कुछ कमा कर लाएँ और ख़ाविंद पर ख़र्च कर सकें। ये थे अल्लाह के नबी अय्यूब (अलैहिस्सलाम)—इतनी बड़ी आज़माइश में पूरे उतरे—आज़माइश एक-दो माह नहीं, पूरे 12 बरस जारी रही—और एक क़ौल के मुताबिक 18 बरस। आप इस दौरान “मुजस्सा-ए-सब्र” बने रहे—कभी किसी से शिकवा तक न किया—यहाँ तक कि कभी ज़ौजा मोहतरमा से भी नहीं।
साल-दर-साल यही हाल रहा। एक बार आपकी बीवी ने अर्ज़ करने की हिम्मत की—कहा: “आप अल्लाह के रसूल हैं; अगर अल्लाह के हुज़ूर दुआ करें तो वह आपकी बीमारी को ख़त्म फ़र्मा देंगे।” मगर आपने बीमारी के ख़त्म होने की दुआ न की—न यह कहा: “या अल्लाह, मुझे रिज़्क-ए-फ़रावानी अता फ़र्मा”—बस रज़ा-ए-इलाही पर राज़ी रहे, तद्बीर-ए-इलाही पर खुश रहे। आपने बीवी से फ़र्माया: “बताओ, हम कितने अरसे खुशहाली में रहे?” उन्होंने कहा: “80 साल।” यह सुनकर आपने कहा: “मुझे अल्लाह तआला से दुआ करते हुए हया आती है—जितना अरसा खुशहाली में रहा, उतना अरसा बीमारी और तंगदस्ती में नहीं गुज़रा—इसलिए अभी दुआ नहीं करूँगा कि वो मुझे शिफ़ा दे या हाल बदल दे—जब तक मुझ पर 80 साल न गुज़र जाएँ—जैसे 80 साल नाज़-ओ-नेमत की बहारें देखीं, वैसे 80 साल मैं इसी हालत पर सब्र का दामन थामे रहूँगा—तंदुरुस्ती का सवाल नहीं करूँगा।” इस जवाब पर बीवी साहिबा मायूस हो गईं—उन्हें तो बीमारी के ख़त्म होने और अच्छे दिनों के वापस आने की उम्मीद थी। उनकी बात से “नाशुक्री-ए-इलाही” का शुब्हा हुआ—अय्यूब (अलैहिस्सलाम) नाराज़ हुए—अल्लाह के नाम की क़सम खाई कि अगर अल्लाह ने शिफ़ा अता फ़र्माई तो मैं उन्हें 100 कोड़े मारूँगा।
दूसरी तरफ़ नौबत यह कि लोगों ने आपकी बीवी को काम देने से इंकार कर दिया—ख़याल था कहीं बीमारी उन्हें भी न लग जाए—समझते थे कि अय्यूब (अलैहिस्सलाम) की बीमारी छूत की है—लिहाज़ा बीवी के वास्ते से हम तक पहुँच सकती है। जब मामला यहाँ तक पहुँचा, तब आपने एक “छोटी-सी बात” कही—इसमें भी कोई वाज़े दुआ नहीं थी—हालाँकि यह दुआ का सबसे बड़ा वक्त था। आपकी इस बात को अल्लाह तआला ने कुरआन-ए-मजीद में बयान फ़र्माया—सूरह-ए-अंबिया, आयत 83: “व अय्यूबा इज़ नादा रब्बहु अन्नी मस्सनिय-यद़्दुरु व अंता अरहमुर-राहिमीन”—और अय्यूब की उस हालत को याद करो जबकि उसने अपने परवरदिगार को पुकारा: “मुझे यह बीमारी लग गई है—और तू रहम करने वालों में सबसे ज़्यादा रहम करने वाला है।” यानी आपने वाज़े अल्फ़ाज़ में दुआ नहीं की—यह नहीं कहा “इलाही मुझे तंदुरुस्ती अता फ़र्मा… रिज़्क अता फ़र्मा”—बल्कि यूँ कहा: “व अंता अरहमुर-राहिमीन”—मेरी हालत तू बेहतर जानता है।
दूसरी जगह—सूरह-ए-साद, आयत 41—अल्लाह तआला फ़र्माते हैं: “वज़्कुर अब्दना अय्यूबा इज़ नादा रब्बहु अन्नी मस्सनियश-शैतानु बिनुस्बिन् व अज़ाब”—और हमारे बंदे अय्यूब का ज़िक्र करो, जबकि उसने अपने रब को पुकारा: “मुझे शैतान ने रंज और दुख पहुँचाया है।” यानी आपने मुसीबत को अल्लाह तआला की तरफ़ मंसूब नहीं किया—बल्कि उसे शैतान की तरफ़ मंसूब किया—हदीस में भी आता है: “वश्शर लैसा इलैक”—बुराई तेरी तरफ़ से नहीं। …अल्लाह तआला ने उसी लम्हे आपकी इल्तिज़ा को कबूल किया—कई मौकों पर आप पहले भी दुआ कर सकते थे और वो कबूल हो जाती, मगर आपने सब्र थामा—इसीलिए ज़र्ब-उल-मिस्ल चली आती है: “सब्र-ए-अय्यूब”।
जब आपने इस अन्दाज़ में दुआ की, अल्लाह तआला ने आज़माइश ख़त्म कर दी—सूरह-ए-साद, आयत 42: “उर्क़ुद बिरिज्लिक—हाज़ा मुग़्तसालुँ बारिदुँ व शराब”—“(ज़मीन पर) अपना पाँव मारो—यह नहाने और पीने के लिए ठंडा पानी है।” आपने पाँव मारा—चश्मा जारी हुआ—उलमा कहते हैं, ग़ुस्ल से बाहरी बीमारी दूर हुई और पानी पीने से अंदरूनी बीमारी—यूं पूरी सेहत लौट आई। ज़ौजा मोहतरमा बाहर से आईं—न पहचाना—पूछा: “क्या आपने अल्लाह के नबी—मेरे मर्ज़ में मुबतला ख़ाविंद—को देखा है? अल्लाह की कसम जब वो सेहतमंद थे तो बिल्कुल आप जैसे थे।” अय्यूब (अलैहिस्सलाम) ने कहा: “क्या तुमने पहचाना नहीं? मैं अय्यूब हूँ।” वो बोलीं: “सुब्हानल्लाह! यानी बीमारी ख़त्म और अल्लाह का एहसान हो गया।”
फिर अल्लाह तआला ने अहल-ओ-ऐयाल की नेमतें भी लौटा दीं—मवेशी वापस—सैय्यदना इब्ने अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हुमा) फ़र्माते हैं—अल्लाह तआला ने उनके साथ उनकी अहिलिया को भी ख़ास फ़ज़्ल-ओ-करम से नवाज़ा—उनकी जवानी भी लौटा दी—अय्यूब (अलैहिस्सलाम) के यहाँ 26 बेटे-बेटियाँ पैदा हुए (एक रिवायत: 26 बेटे, बेटियाँ इसके अलावा)। सूरह-ए-अंबिया, आयत 84: “व वहब्ना लहु अह्लहु व मिस्लहुम मअहुम रहमतं मिनिंदिना—व ज़िक्रालिल आबिदीन”—हमने उसे अहल-ओ-ऐयाल अता फ़र्माए—बल्कि उनके साथ वैसे ही और, अपनी ख़ास महरबानी से—ताकि सच्चे बंदों के लिए सबक हो।
इमाम बुख़ारी, इमाम अहमद वग़ैरह ने रिवायत किया—नबी-ए करीम صَلَّى اللّٰهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ ने फ़र्माया: जब अय्यूब (अलैहिस्सलाम) ग़ुस्ल फ़र्मा रहे थे, उन पर सोने की टिड्डियों की बारिश होने लगी—उन्होंने उन्हें कपड़े में जमा करना शुरू किया—अल्लाह तआला ने फ़र्माया: “ऐ अय्यूब! क्या मैंने तुझे मालदार नहीं बना दिया?” अर्ज़ किया: “बला यारब्बी—व लाकिन्नी ला इस्तग्नि अं बरकतिक”—जी हाँ, ऐ मेरे रब—लेकिन मैं तेरी रहमत-ओ-बरकत से बेपरवाह कैसे रहूँ!” माल-ओ-दौलत, अहल-ओ-ऐयाल, सेहत—सब वापस। और बीवी पर भी नरमी—सूरह-ए-साद, आयत 44: “व ख़ुज़ बियदिका दिघ्सन् फद्रिब बिहि व ला तहन”—“अपने हाथ में तिनकों की एक झाड़ू पकड़ो (जिसमें 100 तिनके हों), उससे (हल्के से) मारो और अपनी क़सम नहीं तोड़ो”—यानी 100 कोड़ों की क़सम इस हिकमत से पूरी हो गई—बीवी को तकलीफ़ भी नहीं पहुँची।
इसके बाद अल्लाह तआला ने सूरह-ए-अंबिया (83–84) और सूरह-ए-साद (41–44) की आयात से अय्यूब (अलैहिस्सलाम) के सब्र, शिफ़ा, और नेमतों की वापसी को नसीहत के तौर पर बयान किया—किस्सा-ए-अय्यूब मुकम्मल हुआ—अब हम शुरू करते हैं यूनुस (अलैहिस्सलाम) का क़िस्सा।
यूनुस (अलैहिस्सलाम) एक अज़ीम और करीम नबी थे—वालिद का नाम मत्ता—नसब सैय्यदना इब्राहीम (अलैहिस्सलाम) की नस्ल से—एक नाम “ज़ुन्नून” भी—यानि “मछली वाले”—“अन्नून” का मतलब मछली—“साहिब-ए-हूत” भी कहा गया—अल्लाह तआला ने इन सब नामों से पुकारा। आपको एक अज़ीम बस्ती की तरफ़ मबऊस किया गया—नाम नीनवा—इराक़ के शिमाल में—मौसिल के बिल-मुक़ाबिल—दोनों के दरमियान “दजला” (टिगरिस) नदी—मौसिल नदी किनारे—सामने नीनवा। इमाम इब्ने-कसीर (रहिमहुल्लाह) लिखते हैं—उनके ज़माने में वहाँ कुछ बुत औंधे मुँह गिरे मिले। अल्लाह ने यूनुस (अलैहिस्सलाम) को नीनवा की तरफ़ रसूल बनाकर भेजा—सूरह-ए-साफ़्फ़ात, आयत 139: “व इन्ना यूनुसल-लमिनल-मुरसलीन”—बेशक यूनुस रसूलों में से थे। आगे आयत 147: “व अरसल्नाहु इला मियति अल्फ़िन् औ यज़ीदून”—हमने उसे एक लाख, बल्कि और ज़्यादा लोगों की तरफ़ भेजा—अक्स़र उलेमा के मुताबिक़ 1,20,000 के क़रीब। क़ौम सब की सब कुफ़्र पर—यूनुस (अलैहिस्सलाम) साल-हासाल दावत देते रहे—वो डटे रहे—फिर ज़ुल्म-ओ-जबर, धमकियाँ… आख़िर आपने अल्लाह के अज़ाब से आगाह करके एलान फ़र्मा दिया कि फ़ुलाँ दिन तुम पर अज़ाब आएगा—और ग़ुस्से की हालत में बस्ती से निकल गए—हालाँकि अल्लाह तआला ने मोहलत (दिन बताने) की इजाज़त दी थी, मगर बस्ती छोड़ने का हुक्म नहीं दिया था।
सूरह-ए-अंबिया, आयत 87: “व ज़न्नून इज़ जाहा बि मगाज़िबन फज़न्ना अल्लन नक़दिर अलाईहि…”—(मछली वाले को याद करो) जबकि वो ग़ुस्से से चल दिए और ख़याल किया कि हम उस पर “क़द्र” (यानी तंगी) न करेंगे। इमाम फ़ख़्रुद्दीन राज़ी (रहमहुल्लाह) तफ़सीर करते हैं कि “नक़दिर” यहाँ “तंगी/इंज़ाम” के मअनी में है, “कुदरत” के नहीं (जैसे सूरह-ए-तलाक, आयत 7 में “क़ुदिरा अलैहि रिज़्कुहू”—जिसका रिज़्क तंग कर दिया गया हो)। यानी यूनुस (अलैहिस्सलाम) का गुमान था कि—बग़ैर इजाज़त निकले भी—अल्लाह उन पर तंगी न करेगा। वो समंदर की तरफ़ चल दिए। उधर नीनवा पर अज़ाब की अलामात—सियाह बादल, आग के शोले—सरदार जमा—सब ईमान ले आए—पूरी क़ौम की तौबा—माएँ-बच्चे जुदा करके, बोसों-कुहरों के साथ ज़ारी-ओ-ज़ारी—तीन दिन तक—अल्लाह ने रहमत फ़रमाई—अज़ाब टाल दिया—सूरह-ए-यूनुस, आयत 98: “फ़लौला कानत क़र्यतुन आमानत फ़नफ़अहा ईमानुहा इल्ला क़ौम-ए-यूनुस…”—सिर्फ़ यूनुस की क़ौम—पूरी बस्ती ईमान लाई—और दुनियावी रुसवाई का अज़ाब टल गया—वक़्त-ए-मुअय्यन तक फ़रोग़-ए-ज़िन्दगी दिया गया।
इधर यूनुस (अलैहिस्सलाम) को मालूम न था—वो कश्ती पर सवार हुए—समंदर में तुग़य्यानी—कश्ती को हल्का करने के लिए क़ुरआअ—हर बार यूनुस का नाम—तीन बार—आख़िर समंदर में डाल दिए गए—सूरह-ए-साफ़्फ़ात, 140–142—बड़ी मछली (हूत) ने निगल लिया—अल्लाह का हुक्म: न खाना, न नुक़्सान पहुँचाना। आप मछली के पेट में तीन अँधेरों में—(मछली का अँधेरा, समंदर का अँधेरा, रात का अँधेरा)—रिवायतें 3, 7, 40 दिन—आपने तस्बीह पढ़ी—दुआ-ए-यूनुस: “ला इलाहा इल्ला अंता सुब्हानक—इन्नी कुंतु मिनज़-ज़ालिमीन”—अल्लाह ने फ़रमाया—सूरह-ए-अंबिया, आयत 88: “फ़स्तजब्ना लहु व नज्जैनाहु मिनल-ग़म—व कज़ालिक नुनजिल-मोमिनीन”—हमने पुकार सुन ली—ग़म दूर कर दिया—मोमिनों को यूँ ही नजात देते हैं। सहाबी ने पूछा: यह दुआ सिर्फ यूनुस के लिए या हम सब के लिए? नबी-ए करीम صَلَّى اللّٰهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ ने फ़र्माया—सबके लिए आम—जो भी पढ़ेगा, अल्लाह उसके रंज-ओ-ग़म दूर करेगा।
मछली ने आपको साहिल पर उगला—आप बीमार—अल्लाह ने क़रीब कद्दू का बेलदार दरख़्त उगाया—चौड़े पत्ते, साया, ख़ुशबू, हशरात से हिफ़ाज़त—एक पहाड़ी बकरी आती—थनों से दूध—रफ्ता-रफ्ता सेहत वापस—फिर आपको दुबारा क़ौम की तरफ़ भेजा—वो सब ईमान ला चुके थे—सूरह-ए-कलम, आयत 48—नबी-ए करीम صَلَّى اللّٰهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ को हिदायत: “सब्र से इंतज़ार करो—मछली वाले की तरह न हो”—दावत में कभी उकताओ नहीं—हिदायत अल्लाह देता है—सूरह-ए-क़सस, आयत 56: “इन्नका ला तह्दी मन अहबब्त”—आप जिसे चाहें हिदायत नहीं दे सकते—अल्लाह जिसे चाहता है देता है—आख़िर में अल्लाह ने यूनुस (अलैहिस्सलाम) को चुन लिया—सूरह-ए-कलम, आयत 50: “फ़ज्तबाहु रब्बुहु फजआलहु मिनस्सालिहीन”—और हदीस-ए-मुस्लिम: “ला यमबग़ी लअहदिन अन यक़ूला—अना ख़ैरुन मिन यूनुस इब्नि मत्ता”—कोई न कहे: मैं यूनुस इब्न-ए-मत्ता से बेहतर हूँ—नबी-ए करीम صَلَّى اللّٰهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ की तवाज़ो, इख़्तियार-ए-सब्र और अल्लाह की जिहत से उठान का सबक़।
अब हम आपको ज़ुलक़िफ्ल (अलैहिस्सलाम) का क़िस्सा सुनाएँगे। कुरआन-ए-अज़ीज़ में ज़ुलक़िफ्ल (अलैहिस्सलाम) का ज़िक्र दो सूरतों—अंबिया और साद—में आया है; मगर दोनों में सिर्फ़ नाम मशहूर है—मुफ़स्सल हालात नहीं। सूरह-ए-अंबिया, 85–86: “व इस्माईल व इदरीस व ज़ुलक़िफ्ल—कुल्लुं मिनस्साबिरीन—व अद्खल्नाहुम फ़ी रहमतिना—इन्नहुम मिनस्सालिहीन”—और सूरह-ए-साद, 48: “वज़्कुर इस्माईल वलयसा व ज़ुलक़िफ्ल—व कुल्लुम्मिनल-अख़्यार”—कुरआन-ओ-हदीस में इससे ज़्यादा तफसील नहीं—बाद की तवारीख़ में मुख़्तलिफ़ क़ौल—किसी ने कहा: वो अय्यूब (अलैहिस्सलाम) के बेटे थे; किसी ने कहा: हज़्क़ील (अलैहिस्सलाम)—बाज़ ने ग़लत तौर पर गौतम बुद्ध कहा—मगर ये कयास क़ाबिल-ए-एतबार नहीं—क्योंकि दलील-ए-सहीह मौजूद नहीं। हमारे लिए कुरआन की तीन दफ़आत काफ़ी हैं—हर उम्मत में नज़ीर आया (फ़ातिर:24), बाज़ अंबिया के क़िस्से बयान हुए, बाज़ के नहीं (ग़ाफ़िर:78), और हम रसूलों में फ़र्क़ नहीं करते (बक़रा:136)—बस तमाम अंबिया पर ईमान—इसी में सलामती है—जब कि नबी-ए-अकरम صَلَّى اللّٰهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ ख़ातिमुन्नबीयीन हैं—माइदा:3—दीन मुकम्मल कर दिया।
अब आएँ शोएब (अलैहिस्सलाम): आप यूनुस (अलैहिस्सलाम) से पहले या बाद—अक़वाल मुख़्तलिफ़—नसब अरब—मदयन बिन मिद्यान बिन इब्राहीम (अलैहिस्सलाम)—शहर “मदयन” (आज का उर्दन/जॉर्डन इलाक़ा, मान के क़रीब)—क़ौम ताजिर, बुतपरस्त, रास्तों में डाके, जब्र से दसवाँ हिस्सा—मिलावट, हेराफेरी—दरख़्त-परस्ती तक। अंबिया का तरीका: तौहीद की दावत और मुआशरती इस्लाह—जहाँ टेढ़ापन देखा, उसे दुरुस्त किया। सूरह-ए-आराफ, 85: “औफ़ू-ल-कैल वल-मीज़ान… व ला तुफ्सिदू फिल-अर्ज़…”—नाप-तोल पूरा करो—ज़मीन में इस्लाह के बाद फ़साद न करो—86: “व ला तक़उदू बि-कुल्लि सिरातिं तुअिदून…”—रास्तों पर बैठकर ईमान वालों को धमकाओ मत—अल्लाह की राह से रोको मत—तुम कम थे—अल्लाह ने ज़्यादा कर दिया—कौमे लूत का अंजाम सामने—शोएब (अलैहिस्सलाम) ने कहा: “इन्न उरीदु इल्लल-इस्लाह मस्ततअतु”—मक़सद सिर्फ़ इस्लाह—तौफ़ीक अल्लाह से—इसी पर तवक्कल (हूद:88)।
क़ौम ने कहा: “अ-सालतुक तअ्मुरुक—कि अबा’ना के माबूद छोड़ दें—और अपने माल में जैसा चाहें वैसा करना भी छोड़ दें?”—आज के कुछ लोग भी दीन को मस्जिद तक महदूद समझते हैं—सियासत/मुआशरा अलग। उन्होंने मज़ाक में कहा: “इन्नका लअन्तहल-हलीमुर-रशीद”—(हूद:87)—शोएब (अलैहिस्सलाम) ने सब्र से नसीहत की—कौमे नूह, हूद, सालेह, लूत के अंजाम याद दिलाए—इस्तिग़फ़ार, तौबा की दावत—वो ज़िद पर रहे—उल्टा धमकी: “लनुख़रिजन्नक—या लौट आओ हमारे दीन में”—(आराफ:88)—शोएब ने कहा: “अव लौ कुन्ना कारिहीन?”—और दुआ: “रब्बना इफ्ताḥ बैनना व बैन कौमिना बिल-हक”—(आराफ:89, 90, 91, 93)
आख़िर फ़ैसला—अज़ाब साहिबान वाले दिन—हवा रोक दी गई—गर्मी, हरारत—बस्ती से बाहर बादल—सब साए में जमा—नीचे ज़मीन हिलने लगी—जलज़ला—जिब्रील (अलैहिस्सलाम) की सख़्त चीख—सब ढेर—आराफ:91—“फ़अखज़त-हुमुर रज्फ़त…”—हूद:94–95—“व लम यबक़ू…”—मगर शोएब (अलैहिस्सलाम) और मोमिन नजात—वो कहा करते: “क़द अबल्लग्तुकुम रिसालाति रब्बी…”—मैंने पहुँचा दिया—अब काफ़िरों पर क्यों रंज करूँ?—फिर मदयन आबाद—यह वही शहर जहाँ बाद में मूसा (अलैहिस्सलाम) आए।
अब असहाबुल-क़र्या—सूरह-ए-यासीन, 13–14—एक बस्ती वालों का किस्सा—अक्स़र मुफस्सिरीन के क़ौल के मुताबिक़ अंताकिया (शाम का शिमाली हिस्सा/आज का तुर्किये के क़रीब)। अल्लाह तआला ने दो रसूल भेजे—क़ौम ने झुठलाया—फिर तीसरे से ताइद—तीनों ने कहा: “इन्ना इलैकुम मुरसलों”—हम तुम्हारे पास भेजे गए हैं—(आगे का पूरा सिलसिला उसी अंदाज़ में जारी है…)
